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य꣡था꣢ गौ꣣रो꣢ अ꣢पा꣣ कृ꣣तं꣢꣫ तृष्य꣣न्ने꣡त्यवेरि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣡ नः꣢ प्रपि꣣त्वे꣢꣫ तूय꣣मा꣡ ग꣢हि꣣ क꣡ण्वे꣢षु꣣ सु꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१७२१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यथा गौरो अपा कृतं तृष्यन्नेत्यवेरिणम् । आपित्वे नः प्रपित्वे तूयमा गहि कण्वेषु सु सचा पिब ॥१७२१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣡था꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । अ꣣पा꣢ । कृ꣣त꣢म् । तृ꣡ष्य꣢꣯न् । ए꣡ति꣢꣯ । अ꣡व꣢꣯ । इ꣡रि꣢꣯णम् । आ꣣पित्वे꣢ । नः꣣ । प्रपित्वे꣢ । तू꣡य꣢꣯म् । आ । ग꣣हि । क꣡ष्वे꣢꣯षु । सु । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१७२१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1721 | (कौथोम) 8 » 3 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 1 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २५२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के आह्वान के विषय में की गयी थी। यहाँ विद्वान् गुरुजन शिष्यजनों को कह रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यथा) जैसे (तृष्यन्) प्यासा (गौरः) गौर मृग (इरिणम्) मरूस्थल को (अव) छोड़कर (अपा कृतम्) जल से पूर्ण सरोवर को (एति) प्राप्त करता है, वैसे ही हे विद्यार्थी ! तू (नः) हम गुरुओं से (आपित्वे) सम्बन्ध (प्रपित्वे) प्राप्त होने पर, हमारे पास (तूयम्) शीघ्र (आ गहि) आ जा और (कण्वेषु) हम मेधावियों के सान्निध्य में (सचा) दूसरे सहाध्यायियों के साथ मिलकर (सु पिब) भली-भाँति लौकिक विद्याओं के रस का तथा अध्यात्म-विद्याओं के रस का पान कर ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे प्यासा मृग जलरहित प्रदेश को छोड़कर जलप्रचुर प्रदेश को चला जाता है, वैसे ही विद्या के प्यासे लोग मूर्खों का सङ्ग छोड़ कर विद्वानों का सङ्ग करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २५२ क्रमाङ्के परमात्माह्वानविषये व्याख्याता। अत्र विद्वांसो गुरुजनाः शिष्यजनमाहुः।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यथा) येन प्रकारेण (तृष्यन्) पिपासितः सन् (गौरः) गौरमृगः (इरिणम्) मरुस्थलम् (अव) अवहाय (अपा कृतम्) जलेन पूर्णं सरोवरम् (एति) गच्छति, तथैव हे विद्यार्थिन् ! (नः) गुरूणाम् अस्माकम् (आपित्वे) सम्बन्धे (प्रपित्वे) प्राप्ते सति त्वम् अस्मत्सन्निधौ (तूयम्) शीघ्रम् (आ गहि) आगच्छ, किञ्च (कण्वेषु) मेधाविनाम् अस्माकं सान्निध्ये (सचा) अन्यैः सहाध्यायिभिः सह मिलित्वा (सु पिब) सम्यग् लौकिकविद्यारसम् अध्यात्मविद्यारसं च आस्वादय ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा पिपासार्तो मृगो जलविहीनं प्रदेशमपहाय जलप्रचुरं प्रदेशं गच्छति तथैव विद्यापिपासवो जना मूर्खसङ्गं विहाय विद्वत्सङ्गतिं कुर्युः ॥१॥